1. तत्त्वज्ञान की जरूरत क्यों है?
उत्तर - तत्त्व ज्ञान की जरूरत इसलिए है क्योंकि भौतिक धारणा, लौकिक धारणा की बुद्धि जो है वह बाहरी सोच रखती है। तो जिस बुद्धि से , जिस धारणा से कोई हरिनाम जप करेगा मंत्र जप करेगा वही फल मिलेगा। तो जिसको तत्त्व ज्ञान नहीं है उसका हरि नाम, मंत्र जाप सांसारिक फल प्रदान करेगा और महामंत्र के द्वारा सांसारिक फल का प्राप्त होना बहुत बड़ा घाटा है । इसलिए हरि नाम भी पूर्ण फल तभी प्रदान करेगा जब किसी को भागवत का तत्त्वज्ञान होगा । तो उस तत्त्वज्ञान का रसास्वादन करने के लिए ही श्रील जीव गोस्वामी जी ने अथवा गौड़ीय गोस्वामी जी ने गोपनीय ग्रंथ लिखे हैं। गूढ़ ग्रंथ लिखे हैं ताकि और अधिक और अधिक गूढ़ अर्थों का रसास्वादन हो और ज्ञान ,भक्ति का रसास्वादन हो और मानसिकता वैसी ही बन जाए।
2. जिस व्यक्ति को भागवत का तत्त्वज्ञान नहीं होगा उसका स्वभाव कैसा होगा ?
उत्तर - जिस व्यक्ति को भागवत का तत्त्वज्ञान नहीं होगा उसकी बुद्धि छोटा सोचेगी और उसके मन में जप करते समय लौकिक धारणाएं रहेंगी। लौकिक धारणाएं मान-सम्मान कैसे मिलेगा, पद प्रतिष्ठा कैसे मिले, धन कैसे मिले, कष्ट निवारण कैसे हो, बिगड़े काम कैसे बने यही सोचता रहेगा। तो वो जो मंत्र जप रहा है वह सांसारिक कामनाओं को पूरा करने में ही लगा रहेगा । उसे कृष्ण प्रेम नहीं मिलेगा। तो अगर किसी ने भागवत का तत्त्व ज्ञान ग्रहण नहीं किया उसकी बुद्धि लौकिक रहेगी वह देहात्म बुद्धि से बाहर नहीं निकलेगा। उसके द्वारा प्राप्त किया मंत्र या हरि नाम से वह संसारिक लाभ प्राप्त करेगा
3. भागवत के तत्त्व ज्ञानी व्यक्ति का स्वभाव कैसा होगा?
उत्तर - अगर किसी ने भागवत का तत्त्व ज्ञान ग्रहण किया है तो भागवत का तत्वज्ञान उसके हृदय में से इन लौकिक कामनाओं को निकाल देगा। उसकी बुद्धि में एक बात बैठ जाएगी कि श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति ही इस महामंत्र का परम ध्येय है। तो किसी और चीज की चाह ही नहीं रहेगी। इसलिए उसके द्वारा किया जाने वाला जप उसको कृष्ण प्रेम ही प्रदान करेगा। तो भागवत के तत्त्व ज्ञान के बिना हरि नाम का परम फल, चरम फल प्राप्त नहीं होता। जब तक कृष्ण प्रेम की लालसा नहीं आएगी तब तक हरि नाम भी कृष्ण प्रेम नहीं देगा , गौण फल ही देगा।
4. स्वयं रूप किसे कहते हैं?
उत्तर - जो रूप अनन्यपेक्षी है अथार्त भगवान् का जो रूप किसी और रूप की अपेक्षा नहीं रखता । किसी और रूप के आश्रित नहीं है अथार्त परम स्वतंत्र है उसको स्वयं रूप कहते हैं ।
स्वयं रूप भगवान जो सभी कारणों का कारण है, जिसका कोई कारण नहीं ,जिसके बराबर कोई नहीं ,जो किसी रूप पर आश्रित नहीं है ,किसी दूसरे रूप ;दूसरे स्वरूप की अपेक्षा नहीं रखता अथार्त सबसे ऊपर है। अनन्यपेक्षी यदरूपम जो रूप अनन्यपेक्षी है किसी और रूप की अपेक्षा नहीं रखता। भगवान के जितने भी रूप हैं विष्णु जी , राम जी, नरसिंह देव जी यह सब श्रीकृष्ण रूप की अपेक्षा रखते हैं । यह परम स्वतंत्र रूप नहीं है लेकिन श्री कृष्ण परम स्वतंत्र रूप है वे किसी अन्य स्वरूप की अपेक्षा नहीं रखते । तो जो भगवान का रूप अनन्यपेक्षी है ,परम स्वतंत्र है उसको स्वयं रुप-स्वयं भगवान कहते हैं।
5. विलास रूप किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो रूप स्वयं रूप से साक्षात प्रकट हुआ है लेकिन अन्य आकार में है उसको विलास रूप कहते हैं । आध्यात्मिक जगत में सबसे ऊपर है परम गोलोक वृंदावन। गोलोक वृंदावन में जो गोविंद हैं , राधा गोविंद है वह सब कारणों के कारण रूप में है। तो जो गोविंद रूप से एक अन्य रूप प्रकट होता है जो अन्य आकार का है चार भुजाओं वाला है और जो परव्योम में रहता है तो उनको कहते हैं परव्योम अधिपति नारायण। ये अनंत कोटी ब्रह्मांड के स्वामी हैं। परव्योम में अनंत कोटि ब्रह्मांड है हर एक वैकुंठ में भगवान् का अलग-अलग रूप विराजमान है । वह सारे रूप इन्ही से प्रकट हुए हैं ।तो यह जो परव्योम अधिपति नारायण, आध्यात्मिक जगत के अधिपति नारायण है इनसे भगवान के सभी रूप प्रकट होते हैं।
6. भगवान् के स्वयं रूप और विलास रूप की शक्तियों में अंतर बताइए?
उत्तर- विलास रूप में स्वयं रूप के बराबर ही शक्ति होती है , पूर्ण रूप से नहीं । विलास रूप में स्वयं रूप श्रीकृष्ण की शक्ति के लगभग बराबर शक्ति होती है । संपूर्ण शक्ति तो स्वयं रूप श्री कृष्ण में होती है। लेकिन श्रीकृष्ण तो द्विभुज आकार के हैं तो यह द्विभुजी मूर्ति स्वयं रूप श्री कृष्ण, चतुर्भुजी परमव्योम अधिपति नारायण के रूप में जब प्रकट होते हैं। जिनसे वैकुंठ , सारे अधिपति, सारे भगवत स्वरूप प्रकट होते है । तो यह नारायण श्रीकृष्ण की विलास मूर्ति हैं । ये श्रीकृष्ण का एक रूप मात्र है उससे प्रकट है लेकिन अन्य आकार में है। यह चतुर्भुजी आकार में है। तो यहां से पता चलता है द्विभुजी आकार से चतुर्भुज रूप प्रकट हुआ है। यह चतुर्भुज रूप तो भगवान् विष्णु का भी है ,भगवान् विष्णु में तो और भी कम शक्ति हो गई।
7. परव्योम अधिपति नारायण और महाविष्णु में क्या अंतर है?
उत्तर - जो परव्योम अधिपति नारायण हैं उनमें केवल अंतरंगा शक्ति है वह बहिरंगा शक्ति का संग नहीं करते । बहिरंगा शक्ति का नियंत्रण नहीं करते क्योंकि परमधाम में कृष्ण लोक में, वैकुंठ लोक में बहिरंगा शक्ति यानी माया है ही नहीं । तो श्री कृष्ण का वह विशेष रूप जो है जो अंतरंगा शक्तियों से युक्त लेकिन सान्निध्य बहिरंगा शक्ति का भी करता है, बहिरंगा शक्ति को अपने वश में रखता है, अपने नियंत्रण में रखता है उसका प्रभाव अपने ऊपर आने नही देता, माया इनके स्वरूप में नहीं आ सकती माया के जो सत्, रज,तम तीन गुण है यह इन्हीं परमात्मा के निर्देशन में कार्य करते हैं। सारा ब्रह्मांड तो सतोगुण,रजोगुण,तमोगुण से चल रहा है लेकिन इन सतोगुण, रजोगुण,तमोगुण का नियंत्रण परमात्मा कर रहे हैं उसको कहते हैं परमात्मा यानी महाविष्णु।
8. परमात्मा के कितने रूप होते हैं ?
उत्तर - परमात्मा के तीन रूप होते हैं -
महाविष्णु - महाविष्णु परमात्मा के मूल रूप हैं महाविष्णु कारण सागर में शयन करते हैं और अनंत कोटि ब्रह्मांड का सृजन करते हैं और साथ-साथ बहिरंगा शक्ति जो मायादेवी है उसको अपने नियंत्रण में रखते हैं ।
गर्भोदकशायी विष्णु - जितने भी अनंत कोटी ब्रह्मांड हैं ।हर एक ब्रह्मांड में गर्भोदकशायी विष्णु अलग-अलग विराजमान है अलग-अलग रूप से और प्रत्येक ब्रह्मांड के अंतर्यामी है। हर एक ब्रह्मांड में अंतर्यामी का कार्य करते हैं। ब्रह्मांड जो है इन गर्भोदकशायी विष्णु का जड़ शरीर है स्थूल शरीर है । ब्रह्मांड के अंदर जितने भी लोक लोकांतर हैं,जो कुछ भी पदार्थ हैं, चर अचर यह पूरे ब्रह्मांड की आत्मा है। जैसे हमारा एक स्थूल शरीर होता है दूसरा आत्मा। स्थूल शरीर में अगर आत्मा ना रहे तो स्थूल शरीर सड़ने लगता है ऐसे ही अगर ब्रह्मांड में गर्भोदकशायी विष्णु ना रहे तो ब्रह्मांड नष्ट भ्रष्ट हो जाएगा, तितर-बितर हो जाएगा, समाप्त हो जाएगा उसका अस्तित्व नहीं रहेगा। तो ब्रह्मांड का जो अस्तित्व है वह गर्भोदकशायी विष्णु से है। तो ब्रह्मांड गर्भोदकशायी विष्णु का जड़ शरीर है स्थूल शरीर है वैसे भगवान का स्थूल शरीर नहीं होता। भगवान का जो स्वरूप है वह सच्चिदानंद है । सच्चिदानंद गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्मांड की आत्मा तुल्य है ।जैसे हमारे शरीर में अगर आत्मा ना रहे तो शरीर जड़ हो जाएगा नष्ट हो जाएगा ऐसे ही ब्रह्मांड में अगर विष्णु ना हो तो ब्रह्मांड प्रतिफलित नहीं होगा, विकास नहीं कर सकता। तो ब्रह्मांड की आत्मा यह परमात्मा का दूसरा रूप है ।
क्षीरोदकशायी विष्णु- यह व्यष्टि जीव के परमात्मा है। व्यष्टि जीव के अंतर्यामी है ।वह रहते तो क्षीरसागर में है लेकिन वह अपने उतने रूप धारण कर लेते हैं जितने की देहधारी प्राणी। ब्रह्मांड में जितने भी देहधारी प्राणी हैं उन देहधारी प्राणियों के साथ उनकी आत्मा के साथ-साथ अंतर्यामी परमात्मा रूप में विराजमान है ।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो - वह सबके हृदय में रहते हैं ।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति - हे अर्जुन! ईश्वर सब जीवो के हृदय में रहता है ।
तो सब जीवो के हृदय में जो आत्मा के साथ साथ रहता है, साक्षी भाव से , साक्षी रूप में रहता है वह परमात्मा का तीसरा रूप है क्षीरोदकशायी विष्णु।
9. परमात्मा क्षीरोदकशायी विष्णु के 2 सहायक कौन हैं?
उत्तर - परमात्मा क्षीरोदकशायी विष्णु के 2 सहायक ब्रह्मा जी और शिव जी हैं । ब्रह्मा जी और शिव जी में रजोगुण,तमोगुण को नियंत्रण करने की शक्ति है। लेकिन वह शक्ति उनकी स्वरूप भूत नहीं है। वह भगवान् क्षीरोदकशायी विष्णु से प्राप्त की गई है । तो परमात्मा से प्राप्त की गई शक्तियों के द्वारा ब्रह्मा जी और शिव जी रजोगुण, तमोगुण का नियंत्रण करने में परमात्मा का सहयोग करते हैं।
10. ब्रह्म,परमात्मा, भगवान् के जो उपासक हैं उनको क्या कहते हैं ?
उत्तर- ब्रह्म के जो उपासक हैं उनको कहते हैं ज्ञान मार्गी। परमात्मा के जो उपासक हैं उनको कहते हैं ध्यान मार्गी।
परव्योम अधिपति नारायण या स्वयं रूप भगवान् के जो उपासक हैं उनको कहते हैं भक्ति मार्गी कहते है ।
श्रीकृष्ण को जानो।
श्रीकृष्ण को मानो।
श्रीकृष्ण के बन जाओ।