पुरुषोत्तम मास महिमा


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हमारे वैदिक सनातन धर्म में अधिकाँश लोगों की मान्यता है कि प्रत्येक तृतीय वर्ष आने वाला अधिमास शुभ सकाम कर्मों (काम्य कर्मों) के लिए वर्जित है, क्योंकि इस मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती और न ही इसका कोई अधिष्ठातृ देव ही होता है।कुछ अल्पज्ञ महानुभाव तो इसे मल मास कहकर इसका तिरस्कार भी करते हैं।भले ही अधिमास  काम्य कर्मों के लिए अनुपयुक्त माना जाता हो, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने अधिमास को अपना पुरुषोत्तम नाम और अपने दिव्य गुण प्रदान किये हैं,जिससे यह बारह मासों का अधिपति बन गया है। अतः मलमास कहकर इसका तिरस्कार करना घोर पाप है। प्रस्तुत 'सुस्वागतम् पुरुषोत्तम मास' पुस्तिका वृहद् नारदीय पुराण अन्तर्गत वर्णित पुरुषोत्तम मास माहात्म्य का सार संकलन है,जिसके स्वाध्याय से पाठक पुरुषोत्तम मास की सर्वश्रेष्ठता सरलता से समझ सकता है।साथ ही इसमें गीतोक्त पुरुषोत्तम योग अध्याय भी सम्मिलित किया गया है,क्योंकि पुरुषोत्तम मास में इसके नित्य पाठ की भारी महत्ता है।पुरुषोत्तम मास का भलीभाँति स्वागत-अभिनन्दन करना प्रत्येक वैष्णव का अनिवार्य कर्त्तव्य है।

(पुरुषोत्तम मास महिमा)

(वृहद् नारदीय पुराण अन्तर्गत पुरुषोत्तम मास माहात्म्य से संकलित)

ऋषियों ने कहा-

हे महाभाग्यवान श्री सूत जी! आप हमें शास्त्रों के सार के भी सार का सार,चित्त को प्रसन्न करने वाली और अमृत से भी श्रेष्ठ पवित्र कथा सुनाइए।

श्री सूत जी ने कहा-

एक बार देवर्षि नारद जी भगवान् नर-नारायण ऋषि के आश्रम में गये और उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् उनसे कलियुगी मनुष्यों के परमकल्याण हेतु प्रार्थना करने लगे।

भगवान् नारायण ऋषि ने कहा-

हे नारद! मैं तुम्हें पुरुषोत्तम मास का उपाख्यान सुनाऊंगा,यह उपाख्यान भक्तिवर्धक और पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने वाला है।पुरुषोत्तम मास की सेवा करने से कलियुगी मनुष्यों का निश्चित रूप से परमकल्याण होता है।

 हे देवर्षि! एक समय जब धर्मात्मा पाण्डव सती द्रौपदी सहित काम्यवन में वनवास काल व्यतीत कर रहे थे;तब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों की कुशलक्षेम जानने हेतु मुनियों सहित काम्यवन गये।भगवान् श्रीकृष्ण को देखते ही पाण्डव भाव विह्वल होकर बड़ी प्रीति के साथ उनसे मिले।पाण्डवों की दुर्दशा  भगवान् से देखी नहीं जा रही थी और वें धृतराष्ट् के पुत्रों को भस्म कर देने की इच्छा से अत्यन्त कुपित हो गए;किन्तु अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करके उन्हें बड़ी कठिनता से शान्त किया और कौरवों को भगवान् के कोप से नष्ट होने से बचा लिया।तत्पश्चात अर्जुन ने अपनी दुर्दशा के कारणों और उसके निवारण के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-

हे अर्जुन! द्वादश मास, छ: ऋतुएँ, दो अयन (उत्तरायण व दक्षिणायन),

संवत्सर,चतुर्युग,पवित्र नदियाँ,सप्त सागर,पवित्र कुण्ड व सरोवर,पवित्र कूप,पवित्र वृक्ष,नगर,ग्राम,पवित्र गिरि और तीर्थ-ये सभी मूर्तिमान् हैं और अपने विशिष्ट गुणों के कारण पूजे जाते हैं।ये सभी अपने-अपने अधिष्ठातृ देव से युक्त हैं और पूजे जाने पर पूजक को फल प्रदान करते हैं।अपने-अपने अधिष्ठातृ देवों की महिमा के कारण ये समस्त सौभाग्यशाली हैं। प्राचीनकाल में जब अधिमास की उत्पत्ति हुई;तब सभी ज्योतिषियों ने अधिमास को अधिष्ठातृ देव (स्वामी) और संक्रान्ति रहित जानकर शुभ कर्मों के लिए वर्जित कर दिया। लोगों ने अधिमास को अस्पृश्य समझकर मल के समान त्याग दिया और मलमास कहकर उसकी निन्दा करने लगे। सर्वत्र अपनी निन्दा सुनकर मूर्तिमान अधिमास बड़ा खिन्न हुआ और भगवान् श्रीनारायण के वैकुण्ठलोक पहुँच गया। उसने भगवान् के समक्ष दण्डवत किया और रो-रोकर अपनी व्यथा सुनाई।

अधिमास ने कहा-

हे नाथ! समस्त संसार में मेरा तिरस्कार हो रहा है। मलमास कहकर मेरा परित्याग कर दिया गया है। सम्पूर्ण संसार में मुझ से अधिक अभागा और दुःखी इस समय कोई नहीं है। मेरा न कोई नाम है, न कोई स्वामी है और न ही कोई आश्रयस्थल है; इसीलिए विद्वानों ने मुझे समस्त शुभकर्मों से बहिष्कृत कर दिया है।सर्वत्र तिरस्कृत होकर मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे हरि! मेरा शोक दूर कीजिये अन्यथा मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँगा- यह कहकर मूर्तिमान अधिमास भगवान् के समीप अचानक से गिर गया।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-

हे अर्जुन! अधिमास को अचेत पड़ा देख भगवान् श्री नारायण ने आँखों के संकेत द्वारा गरुड़ को आज्ञा दी और गरुड़ मूर्च्छित हुए अधिमास को अपने पंख से हवा झलने लगे। हवा लगने पर उसे चेतना आ गयी और वह उठकर पुनः अपनी व्यथा से मुक्ति के लिए प्रार्थना करने लगा। अधिमास की यह दुर्दशा देखकर भगवान् श्री नारायण ने कहा-

हे वत्स! उठो-उठो, तुम्हारा कल्याण हो, विषाद त्याग दो।यह वैकुण्ठ है,यहाँ कोई दुःखी नहीं रह सकता। तुम मेरी शरण में आये हो,मैं तुम्हारे कष्ट का निवारण अवश्य करूँगा।

वत्सागच्छ मया सार्धं गोलोकं योगिदुर्लभम्।

यत्रास्ते भगवान् कृष्णः पुरुषोत्तम ईश्वरः।।

"हे वत्स! आओ और मेरे साथ  योगियों के लिए भी दुर्लभ गोलोक धाम चलो,जहाँ पुरुषोत्तम परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण विराजते हैं।"

गोपिकावृन्द मध्यस्थो द्विभुजो मुरलीधरः।

नवीननीरदश्यामो रक्तपंकजलोचनः।।

"वे वहाँ पर गोपियों में समूह के मध्य द्विभुज मुरलीधर स्वरूप में रहते हैं। नवीन मेघों के समान उनका श्यामल शरीर है और रक्तकमल के समान उनके विशाल नयन है।"

शारदीय- पार्वणेन्दुशोभातिरोचनानन:।

कोटिकन्दर्पलावण्य लीलाधाममनोहरः।।

"शरद ऋतु की पूर्णिमा के समान अत्यंत सुन्दर उनके मुखमण्डल की शोभा है। वे करोड़ो कामदेवों के समान सुन्दर और मनोहर लीला के धाम हैं।"

स एव परमं ब्रह्म पुराणपुरुषोत्तमः।

स्वेच्छामय: सर्वबीजं सर्वाधारः  परात्पर:।।

"वे ही एकमात्र पुराण-पुरुषोत्तम परंब्रह्म हैं। वे स्वतंत्र इच्छामय,सभी के मूल कारण,सर्वाधार और दिव्यातिदिव्य हैं।"

निरीहो निर्विकारश्च परिपूर्णतमः प्रभु:।

प्रकृते: पर ईशानो निर्गुणो नित्यविग्रह:।।

"वे निष्काम, निर्विकार, परिपूर्णतम, सबके प्रभु, अप्राकृत, सर्वोच्च शासक,त्रिगुणातीत और नित्य शरीर वाले हैं।"

भगवान् श्री नारायण ऋषि ने कहा-

हे नारद!  यह कहकर और अधिमास का हाथ पकड़कर भगवान् वैकुण्ठनाथ श्री हरि उसे श्री गोलोक धाम ले गए।

अधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितः।

सद्रत्नभूषितासंख्यमन्दिरै: परिशोभितः।।

"वह श्रीगोलोक धाम मानसिक क्लेशों, शारीरिक रोगों, वृद्धावस्था, मृत्यु, शोक और भय से रहित है और चिन्मय रत्नों से अलंकृत व असंख्य भवनों से सुशोभित है।"

गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।

परमाह्लादकं शश्वतपरमानन्दकारणम्।।

"गोलोक के अन्दर एक अत्यन्त मनोहर ज्योति है, जो परमानन्ददायक और शाश्वत परमानन्द का कारण है।"

ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।

तदेवानन्दजनकं निराकार परात्परम्।।

"योगीजन निरन्तर योग द्वारा ज्ञानरूपी चक्षुओं से जिसका ध्यान करते रहते हैं, वह ज्योति आनन्ददायक, निराकार और दिव्य है।"

तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम्।

इन्दीवरदलश्यामं पंकजारुणलोचनम्।।

"उस ज्योति के अन्दर एक अत्यन्त सुमनोहर रूप है,जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण और लाल कमल के समान विशाल नयनों वाला है।"

द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम्।

श्रीवत्सवक्षसा भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम्।।

"वह दिव्य रूप द्विभुज, हाथों में मुरली लिए, मन्दहास्य युक्त, पीताम्बरधारी और श्रीवत्स चिह्न व कौस्तुभमणि से दीप्तिमान वक्षःस्थल वाला है।"

तदेव परमं ब्रह्म पूर्णं श्रीकृष्णसंज्ञकम्।

स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।।

"वही श्रीकृष्ण नामक पूर्ण परंब्रह्म हैं, जो परमस्वतंत्र, सबका मूल कारण, सर्वाधार और दिव्यातिदिव्य है।"

किशोरवयसं शश्वद्गोपवेशविधायकम्।

कोटिपूर्णेन्दु शोभाढ्यं भक्तानुग्रहकारकम्।।

"वें श्रीकृष्ण नित्य किशोर अवस्था वाले, नित्य गोपवेशधारी, करोड़ों पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा वाले और भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।"

श्रीगोलोकधाम में पहुँचते ही वैकुण्ठनाथ भगवान् श्री नारायण ने पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और  उत्तम स्तुति गायी।

  

श्रीविष्णुरुवाच-

वन्दे कृष्णं गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम्।

अव्यक्तमव्ययं व्यक्तंगोपवेशविधायिनम्।।

किशोरवयसं शान्तं गोपीकांत मनोहरम्।

नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ।।

वृन्दावनवनाभ्यन्ते रासमण्डलसंस्थितम्।

लसत्पीतपटं सौम्यं त्रिभंगललिताकृतिम्।।

रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।

द्विभुजं मुरलीहस्तं पीतवाससमच्युतम्।।

श्रीविष्णु (श्रीनारायण) ने कहा-

"मैं त्रिगुणातीत, गोविन्द, अद्वित्तीय, अक्षर, अभक्तों के लिए अप्रकट,अविनाशी, भक्तों के लिए प्रकट,गोपवेश-धारी,नित्यकिशोर, शान्त, गोपीनाथ, मनोहर, वर्षा ऋतु के नवीन मेघों के समान श्यामल, करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर, वृन्दावन के अन्तरंग रासमण्डल में विराजने वाले, पीताम्बर से शोभायमान, सौम्य मूर्ति वाले, त्रिभंगललित आकृति वाले, रासेश्वर, रासलीला वासी, रासलीला के लिए सदा उत्सुक, द्विभुज,कर- मुरलीधारी और पीतवस्त्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण की वन्दना करता हूँ।"

इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात्, श्रीकृष्ण परिकरों द्वारा सत्कार प्राप्त करके और श्रीकृष्ण की आज्ञा से भगवान् नारायण एक श्रेष्ठ रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान हो गए। तत्पश्चात् वैकुण्ठनाथ ने कम्पायमान  अधिमास द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों में प्रणाम करवाया।

भगवान् श्रीकृष्ण ने श्री नारायण से पूछा कि यह कौन है? यहाँ क्यों आया है? यह इतना दुःखी क्यों है? इस गोलोक में तो कोई क्लेश है ही नहीं, गोलोकवासी सर्वदा आनन्दमग्न रहते हैं, स्वप्न में भी उन्हें कोई कष्ट प्राप्त नहीं होता; फिर यह कैसे मेरे सम्मुख दुःख से काँप रहा है?

तब वैकुण्ठनाथ श्री नारायण ने  अपने सिंहासन से उठकर अधिमास के समस्त कष्टों का वृतान्त सुनाते हुए कहा-

हे गोविन्द! यह अधिमास है। इसका कोई अधीश्वर नहीं है। यह सूर्य की संक्रान्ति से रहित और शुभ कर्मों में सदा निषिद्ध है। 'स्वामी रहित मास में न तो तीर्थ स्नान करना चाहिए और न ही दान'- यह आक्षेप लगाकर द्वादश मासों और ज्योतिष वेत्ताओं  ने इसका बहुत अपमान किया है। इस बात का इसे बहुत कष्ट है और दुखाग्नि में झुलसकर इसने मरने की ठान ली है। कुछ कृपालु महानुभावों की प्रेरणा से यह मेरे पास आया है। हे हृषिकेश! आपके अतिरिक्त अन्य कोई इसके इसके कष्ट का निवारण नहीं कर सकता; इसीलिए मैं इस आश्रयहीन का हाथ पकड़कर इसे आपकी शरण में लेकर आया हूँ।हे जगन्नाथ! मैं सब कुछ छोड़कर,इसे साथ लेकर आपकी शरण में आया हूँ; कृपया मेरा यहाँ आना सफल कीजिये। यह कहकर भगवान् नारायण हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख खड़े हो गए।

 

तत्पश्चात् गोलोकनाथ श्रीकृष्ण ने कहा -

हे वैकुण्ठनाथ! यह आपने बहुत अच्छा किया जो इस अधिमास का हाथ पकड़कर मेरे पास ले आये। इससे संसार में आपकी कीर्ति फैलेगी। आपने इसे स्वीकार कर लिया है, इसलिए मैं भी इसे स्वीकार करता हूँ।अब मैं इसे अपने समान ही सर्वोपरि करूँगा। जिस प्रकार मैं जगत में पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हूँ,उसी प्रकार यह अधिमास भी 'पुरुषोत्तम मास' नाम से विख्यात होगा। मैं अपने समस्त गुण इसे प्रदान करता हूँ। आज से मैं स्वयं इस अधिमास का स्वामी बन गया हूँ और अब यह द्वादश मासों का अधिपति होगा। आज से यह जगत् में पूज्य हो जायेगा।

 

अकामःसर्वकामो वा योऽधिमासं प्रपूजयेत्।

कर्माणि भस्मसात्कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयम्।।

"जो व्यक्ति निष्काम भाव अथवा सकाम भाव से इस अधिमास की आराधना करेगा,उसके समस्त कर्मबन्धन भस्मीभूत हो जायेंगे और उसे मेरे गोलोक में  मेरी प्राप्ति होगी- इसमें रंचमात्र भी संशय नहीं है।"

 

यदर्थं च महाभागा यतिनो ब्रह्मचारिणः।

तपस्यन्ति महात्मानो निराहारा दृढ़व्रताः।।

फलपत्रानिलाहारा: कामक्रोधविवर्जिता:।

जितेन्द्रियचया: सर्वेप्रावृट्काले निराश्रया:।।

शीतातपसहाश्चैव यतन्ते गरुड़ध्वज।

तथापि नैव में यान्ति परमं पदमव्ययम्।।

पुरुषोत्तमस्य भक्तास्तु मासमात्रेण तत्पदम्।

अनायासेन गच्छन्ति जरामृत्युविवर्जितम्।।

"जिस गोलोकधाम की प्राप्ति के लिए महान् संन्यासी और ब्रह्मचारी तपस्या करते हैं, महात्माजन निराहार रहते हैं, कठोर व्रत का पालन करते हैं, फल खाकर, पत्ते चबाकर, वायु पीकर रहते हैं, काम, क्रोधादि का त्याग करते हैं,अपनी इन्द्रियों को वश में करते हैं, वर्षा ऋतु में खुले आकाश के नीचे तप करते हैं, सर्दियों में शीत सहते हैं

और गर्मियों में प्रचण्ड धूप भी सहन करते हैं; फिर भी हे गरुड़ध्वज! वे मेरे जिस अविनाशी परमपद स्वरूप गोलोकधाम को प्राप्त नहीं कर पाते; उसी जरा-मृत्यु विहीन परमपद को पुरुषोत्तम मास के  भक्त केवल एक मास की साधना द्वारा बिना परिश्रम के ही प्राप्त कर लेंगे।"

 

कदाचिन्मम भक्तानामपराधोऽधिगण्यते।

पुरुषोत्तमभक्तानां नापराधः कदाचन।।

"कदाचित् मेरे भक्तों का अपराध भले ही गणना में आ जाता हो, किन्तु पुरुषोत्तम मास के आराधकों के अपराधों को मैं अपराध की श्रेणी में कभी नहीं गिनूँगा।"

मदाराधनतो विष्णो मदीयाराधनं प्रियम्।

मद्भक्तकामनादाने विलम्बेऽहं कदाचन।।

मदीयमासभक्तानां न विलम्ब: कदाचन।

मदीयमासभक्ता ये ममैवातीव वल्लभा:।।

"हे श्री विष्णु! अपनी आराधना की अपेक्षा मुझे अपने भक्तों की आराधना अधिक प्रिय है। मैं कभी-कभी अपने भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने में भले ही विलम्ब कर दूँ, किन्तु अपने पुरुषोत्तम मास के भक्तों की मनोकामना को पूर्ण करने में मुझसे कभी विलम्ब नहीं होगा। मेरे पुरुषोत्तम मास के भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय रहेंगे।"

 

तिरस्कुर्वन्ति ये मूढ़ा मलमासं मम प्रियम्।

नाचरिष्यन्ति ये धर्मं ते सदा निरयालया:।।

पुरुषोत्तममासाद्य वर्षे वर्षे तृतीयके।

नाचरिष्यन्ति धर्मं ये कुम्भीपाके पतन्ति ते।।

इह लोके महद् दु:खं पुत्रपौत्रकलत्रजम्।

प्राप्नुवन्ति महामूढा दुःखदावानलस्थिता।।

ते कथं सुखमेधन्ते येषामज्ञानतो गतः।

श्रीमान् पुण्यतमो मासो मदीय: पुरुषोत्तम:।।

"जो मूर्ख मेरे प्रिय पुरुषोत्तम मास को मलमास समझकर तिरस्कार करेंगे और इस मास के योग्य धर्माचरण नहीं करेंगे; वे सदैव नरक में पड़े रहेंगे। प्रत्येक तृतीय वर्ष पुरुषोत्तम मास आता है,जो इसके आगमन पर योग्य धर्माचरण (भागवत धर्म का आचरण) नहीं करेंगे; वे कुम्भीपाक नरक में गिरेंगे। ऐसे महामूर्ख जब तक पृथ्वीलोक पर जीवित रहेंगे; तब तक दुःख रूपी दावाग्नि में जलते रहेंगे और पुत्र-पौत्र,पत्नी आदि द्वारा प्रदत्त महा दुःख भोगते रहेंगे। जो मनुष्य मेरे सौभाग्यप्रदायक व पवित्रतम पुरुषोत्तम मास को अनजाने में व्यतीत करेंगे; उन्हें सुख कैसे प्राप्त होगा? अर्थात् दुःख ही प्राप्त होगा।"

 अतः हे लक्ष्मीपति! आप इस अधिमास की चिन्ता त्याग दीजिये और इसे लेकर वैकुण्ठ जाइये। भगवान् श्रीकृष्ण के उपर्युक्तसारगर्भित वचन सुनकर भगवान् वैकुण्ठनाथ की प्रसन्नता का कोई पारावार न रहा और वें पुरुषोत्तम मास को साथ लेकर,पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम करके गरुड़ पर आरूढ़ होकर शीघ्र ही वैकुण्ठ चले गए। भगवान्  श्री नारायण ने पुरुषोत्तम मास को वैकुण्ठ में अपने समीप ही वास-स्थान दिया।

 

तत्रत्यवसतिं प्राप्य मोदमानोऽभवत्तदा।

मासानामधिपो भूत्वा रमते विष्णुना सह।।

"वहाँ वैकुण्ठ में वास प्राप्त करके पुरुषोत्तम मास की प्रसन्नता की सीमा न रही और वह बारहों मासों का अधिपति बनकर भगवान् श्री नारायण के साथ विहार करने लगा।" 

यह वृत्तान्त सुनाने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण द्रौपदी और युधिष्ठिर की ओर देखते हुए अर्जुन से कहने लगे कि आप लोगों को तपोवन में आकर निरन्तर कष्ट सहते रहने के कारण और कौरवों के आगामी षड़यन्त्र की सम्भावना के भयवश पुरुषोत्तम मास के आगमन का कोई ज्ञान न रहा, जिससे आप सब उसका उचित अभिनन्दन नहीं कर सके। इसी कारण से आपके कष्टों में वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त आप सबके कष्ट भोगने का एक दूसरा विलक्षण कारण भी है।अब मेरे मुख से उस ऐतिहासिक वृत्तान्त को भी सुनिए।

यह जो पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी है, ये पूर्वजन्म में मेधावी ऋषि की अत्यन्त लाड़ली और अतीव सुन्दरी पुत्री थी। वह ऋषि-कन्या साहित्य शास्त्र और नीति शास्त्र में निपुण थी। उसकी माता उसे बाल्यकाल में ही छोड़कर परलोक सिधार गयी थी, अतः पिता ने ही प्रसन्नतापूर्वक उसका पालन-पोषण किया। जब वह ऋषि-कन्या विवाह के योग्य हो गयी तो ऋषि मेधावी उसके लिए वर ढूँढने में जुट गए; किन्तु बहुत परिश्रम करने पर भी कन्या के योग्य वर नहीं मिल सका। दुर्भाग्यवश मेधावी ऋषि कन्या-दान किये बिना ही तीव्र ज्वर के कारण परलोक सिधार गए। पिता के परलोक गमन के उपरान्त वह ऋषि कन्या उनके आश्रम में बारम्बार विलाप करने लगी। आस-पास के ब्राह्मणों ने ही मेधावी ऋषि की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की और उस ऋषि-कन्या को धैर्य धारण कराया। पितृ-शोक में वह ऋषि-कन्या अन्न-जल आदि छोड़कर अत्यन्त व्यथित रहने लगी।

एक दिन दैवयोग से मेधावी ऋषि के मित्र परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा उस निर्जन आश्रम में पधारें। ऋषि-कन्या ने महर्षि दुर्वासा की बड़े आदरभाव से चरणवन्दना की और उन्हें आसन प्रदान करके विभिन्न जंगली फल-फूल अर्पित किये। मेधावी ऋषि का देहावसान ज्ञात होने पर महर्षि दुर्वासा ने ज्ञानवर्धक वचनों द्वारा उस कन्या को सान्त्वना प्रदान की।

तत्पश्चात् उस ऋषि-कन्या ने महर्षि दुर्वासा के प्रति कहा-

हे मुनिवर! न मेरी माता है, न पिता है और न कोई भाई ही है। मेरी दृष्टि जिधर भी जाती है, उधर ही निर्जन वन दिखाई देता है। मुझे कोई योग्य वर भी प्राप्त नहीं हो सका,अब तो मेरे मन में बार-बार जीवन समाप्त करने के विचार ही आ रहे हैं। इस प्रकार कहकर वह ऋषि-कन्या बिलख-बिलख कर रोने लगी। महर्षि दुर्वासा को अपने मित्र की पुत्री पर दया आ गयी ।

 

दयार्द्र महर्षि दुर्वासा ने कहा-

हे पुत्री! शोक मत करो, मैं तुम्हें समस्त प्रकार के कष्टों से मुक्त होने का उपाय बताने जा रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। वर्तमान मास से तीन मास पश्चात् जो मास आएगा वह पुरुषोत्तम मास द्वादश मासों का अधिपति, सौभाग्यवर्द्धक और भगवान् श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है।

 

साधनानि समस्तानि निगमोक्तानि यानि च।

मासस्यैतस्य नार्हन्ति कलामपि च षोडशीम्।।

"वेद वर्णित जितने भी परमपद प्राप्ति के साधन हैं, वे सभी पुरुषोत्तम मास की साधना के सोलहवें अंश के भी समान नहीं है।"

 

 श्रीकृष्णवल्लभो मासो नाम्ना च पुरुषोत्तमः।

तस्मिन् संसेविते बाले सर्वं भवति वाञ्छितम्।।

"हे कन्या! वह मास भगवान् श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है और भगवान् श्रीकृष्ण की ही भाँति उसका नाम भी पुरुषोत्तम ही है। उस मास में पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा-आराधना करने से समस्त कामनायें पूर्ण हो जाती है।"

अतः हे ऋषि-कन्या तुम पुरुषोत्तम मास की ही आराधना करो, इससे तुम्हारे दुर्भाग्य का नाश हो जायेगा।

इतना सुनकर वह ऋषि-कन्या बोली-हे ब्रह्मर्षि! आपने जो कुछ कहा वह मुझे रुचिकर प्रतीत नहीं हो रहा है। क्या माघ मास सारहीन हो गया? क्या कार्तिक मास का माहात्म्य कम हो गया? क्या सदाशिव आदि देवताओं ने अपनी पूजा का फल देना छोड़ दिया है? क्या सूर्यदेव अब कामना पूर्ण नहीं करते हैं? क्या जगदम्बा और गणपति जी ने भी अपने भक्तों का मनोरथ पूर्ण करना छोड़ दिया है? जो मैं समस्त शुभ कर्मों में निन्दित,सूर्य संक्रान्ति रहित मलमास की आराधना करूँ।

ऋषि-कन्या के वचन सुनकर महर्षि दुर्वासा कुपित हो उठे, किन्तु दुर्भाग्य की मारी उस मित्र-पुत्री को कोई शाप नही दिया। वे मुनिश्रेष्ठ जानते थे कि पुरुषोत्तम मास का माहात्म्य बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी अज्ञात है तो फिर ये अनाथ बालिका कैसे जान सकती है? जाते-जाते महर्षि दुर्वासा ने कहा कि पुत्री मैं तुम्हारा भविष्य बता रहा हूँ,उसे सुन ले। आज तुमने पुरुषोत्तम मास का अनादर किया है, इसका फल तुम्हें इस जन्म में या अगले जन्म में अवश्य भोगना होगा। इतना कहकर महर्षि दुर्वासा बद्रीनाथ धाम चले गए। पुरुषोत्तम मास का अपमान करने के कारण उसी क्षण उस ऋषि-कन्या का मुख तेजहीन हो गया। तत्पश्चात् उस ऋषि-कन्या ने महादेव श्री शिवजी की प्रसन्नता के लिए उग्र तप आरम्भ कर दिया,जो अनवरत नौ हजार वर्षों तक चलता रहा। ऋषि-कन्या के तप से प्रसन्न होकर श्री शिवजी प्रकट हुए और मनोवाञ्छित वर माँगने के लिए कहा। ऋषि-कन्या ने अत्यन्त उत्सुकता वश कहा-हे महादेव! पति दीजिये, पति दीजिये, मुझे पति दीजिये,मुझे पति की कामना है, पति दीजिये। इसके अतिरिक्त अन्य कोई कामना मेरे मन में नहीं है।

यह सुनकर महादेव बोले-हे ऋषि-कन्या! जैसा तुमने अपने मुख से कहा है, वैसा ही होगा। तुमने पाँच बार पति-पति कहकर वर माँगा है, इसलिए तुम्हारे पाँच पति होंगे और वे सभी शूरवीर,धर्मज्ञ, साधु-हृदय, सत्यपरायण, यज्ञकर्ता, जितेन्द्रिय, तुम्हारे अनुकूल और राजकुलोत्पन्न होंगे।

यह सुनकर ऋषि-कन्या ने कहा-हे महादेव! ऐसा वर देकर संसार में मेरी अपकीर्ति मत कराइये, क्योंकि एक नारी का एक ही पति होता है। मुझे ऐसा सोचकर भी लज्जा आ रही है, हे शूलपाणि! मैं आपकी भक्त हूँ, मुझ पर दया कीजिये।

 श्री महादेव ने कहा-

पुरुषोत्तमस्त्वया मासो न कृतो भगवत्प्रिय:।

यस्मिन्नर्पितमैश्वर्यं श्रीकृष्णेनात्मनः स्वकम्।।

"जिस पुरुषोत्तम मास को भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना समस्त निजी ऐश्वर्य प्रदान कर रखा है, उस भगवत् प्रिय पुरुषोत्तम मास का नियमपूर्वक सेवन तुमने नहीं किया है।"

स मासो न त्वया मूढ़े पूजितो लोकपूजितः।

अतस्ते पञ्च भर्तारो भविष्यन्ति द्विजात्मजे।।

"हे अबोध द्विजकन्या! उन्हीं लोकपूजित पुरुषोत्तम मास का पूजन तुमने महर्षि दुर्वासा के कहने पर भी नहीं किया, अतः तुम्हारे पाँच पति ही होंगे।"

नान्यथा भावि तद्बाले पुरुषोत्तमखण्डनात्।

यो वै निन्दति तं मासं स याति घोररौरवम्।।

"हे बालिका! पुरुषोत्तम मास की आराधना का खण्डन करने के कारण मेरा वचन अन्यथा नहीं होगा। जो इस पुरुषोत्तम मास की निन्दा करते हैं,वे घोर रौरव नरकगामी होते हैं।"

हे ऋषि-पुत्री इस जन्म में तुम्हें पति सुख नहीं मिलेगा, किन्तु अगले जन्म में तुम अपनी तपस्या के प्रभाव से यज्ञकुण्ड से जन्म लोगी और पाँच पतियों की अर्धाङ्गिनी बनोगी। इतना कहकर नीलकण्ठ श्री शिवजी शीघ्र ही अन्तर्धान हो गए और वह ऋषि-कन्या चकित होकर इधर-उधर देखती रह गयी। शिवजी के चले जाने के पश्चात् उस तपस्विनी का मृत्युकाल उपस्थित हो गया और उसने अपने आश्रम में ही देहत्याग कर दिया। वही मेधावी ऋषि की कन्या इस जन्म में राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी के नाम से विख्यात है और शिवजी के वरदान स्वरूप द्रौपदी को आप पाँचों भाई पति रूप में प्राप्त हुए हो। जब दुःशासन इस द्रौपदी का हस्तिनापुर की राजसभा में चीरहरण कर रहा था, तब पहले तो मैंने पुरुषोत्तम मास की अवहेलना के कारण इसकी उपेक्षा कर दी; किन्तु जब इसने विनयपूर्वक मेरा नामोच्चारण किया तो मैं दयार्द्र होकर तत्काल वहाँ उपस्थित हुआ और इसको अनेक साड़ियों से आच्छादित कर दिया था। यद्यपि यह द्रौपदी इस जन्म में मेरी अनन्यभक्त थी; फिर भी पुरुषोत्तम मास की अवहेलना के कारण मैंने इसकी उपेक्षा कर दी थी। यह पुरुषोत्तम मास मुनियों और देवताओं के लिए भी सेवनीय है; अतः हे पाण्डवों! तुम्हें आगामी पुरुषोत्तम मास की आराधना करनी चाहिए, इससे तुम्हारा पुनः उत्थान हो जायेगा। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों को उनके कष्टों का कारण तथा निवारण का उपाय बताकर द्वारकापुरी चले गये।

भगवान् श्रीनारायण ऋषि ने कहा-

हे देवर्षि नारद! भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार पाण्डवों ने पुरुषोत्तम मास का आराधन किया और श्रीकृष्ण की कृपा से अन्ततः भारतवर्ष का साम्राज्य प्राप्त कर लिया।

 

पुरुषोत्तम मास के इस उपाख्यान को सुनकर देवर्षि नारद ने कहा-

हे प्रभु! आपके मुखारविन्द से पुरुषोत्तम मास का अद्भुत माहात्म्य श्रवण करके मुझे यह स्पष्टतया ज्ञात हो गया है कि पुरुषोत्तम मास की साधना ही सर्वश्रेष्ठ साधना है। पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य को श्रवण करने मात्र से ही जब महापापों का नाश हो जाता है,तो पुरुषोत्तम मास की साधना करने से क्या असम्भव रह जाता है? अर्थात् इसकी साधना से सब कुछ सम्भव है।

श्री सूत जी ने कहा- हे ऋषियों! एक बार महर्षि कौण्डिन्य ने कहा था कि जो व्यक्ति निम्नलिखित मन्त्र के बारम्बार जप द्वारा पुरुषोत्तम मास को व्यतीत करता है,उसे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण प्राप्त होते हैं।

 

गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरूपिणम्।

गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दगोपिकाप्रियम्।।

"मैं गोवर्धनधारी, गोपरूपधारी गोपाल, गोकुल के उत्सव, गोकुल के ईश्वर, गोपकिशोरी श्री राधा के प्रिय गोविन्द को प्रणाम करता हूँ।"

 हे ऋषियों पुरुषोत्तम मास में श्रीमद्भागवत कथा श्रवण, और दीपदान अवश्य करना चाहिए।

 

श्रीमद्भागवतं भक्त्या श्रोतव्यं पुरुषोत्तमे।

तत्पुण्यं वचसा वक्तुं विधाताऽपि न शक्नुयात्।।

"पुरुषोत्तम मास में भक्तिपूर्वक श्रीमद्भागवत कथा सुनने वाले के आध्यात्मिक पुण्यों का वर्णन करने में विधाता श्रीब्रह्मा जी भी समर्थ नहीं हो सकते।"

 

तीर्थानि सकलान्येव शास्त्राणि सकलानि च।

पुरुषोत्तमदीपस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।

"व्रजमण्डल अतिरिक्त समस्त तीर्थों में स्नान करने और श्रीमद्भागवत महापुराण व श्रीमद्भगवद्गीता अतिरिक्त समस्त शास्त्रों के श्रवण व स्वाध्याय करने से जितना फल प्राप्त होता है, वह पुरुषोत्तम मास में दीपदान से अर्जित फल का सोलहवाँ अंश भी नहीं है।"

सहस्रजन्मतप्तेन तपसा तन्नलभ्यते।

यत्फलं लभ्यते पुम्भि: पुरुषोत्तम सेवनात्।।

"मनुष्य को जो फल एक हजार जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं होता; वही फल मात्र एक पुरुषोत्तम मास में पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करने से प्राप्त हो जाता है।"

 

(पुरुषोत्तम मास में भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में श्रीमद्भगवद्गीता अन्तर्गत पुरुषोत्तमयोग अध्याय का नित्यपाठ भी सम्मिलित है।)

 

अन्ततः नैमिषारण्य तीर्थ वासी ऋषियों ने परस्पर कहा-

पुरुषोत्तम मास का यह सर्वश्रेष्ठ और दिव्य माहात्म्य कल्पवृक्ष के समान अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने में पूर्णतः सक्षम है।

 

श्रीमद्भगवद्गीता वर्णित पुरुषोत्तम योग

 

श्रीभगवानुवाच-

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।। (1)

"श्रीभगवान् ने कहा- शास्त्रों में संसार को ऊपर की ओर जड़ों वाला और नीचे की ओर शाखाओं वाला नित्य पीपल वृक्ष कहा गया है। वह संसार रूपी वृक्ष काम्य कर्म निरूपक वेद समूह रूपी पत्तों वाला है, जो उसे जानते है; वही वेद के तात्पर्य ज्ञाता हैं।"

 

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा

गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि

 कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।(2)

"उस संसार रूपी पीपल वृक्ष की शाखाएँ नीचे की ओर निकृष्ट योनियों के रूप में और ऊपर की ओर उच्च योनियों के रूप में फैली हुई हैं। उस संसाररूपी वृक्ष की शाखाओं के पल्लव इन्द्रियविषय रूप हैं और माया के त्रिगुणों द्वारा पोषित हैं। वटवृक्ष के समान उस संसाररूपी पीपलवृक्ष की भोगवासनारूपी नीचे की ओर फैलने वाली जटाएँ भी हैं, जो मनुष्यलोक में कर्मों के बन्धन में बाँधने वाली है।"

 

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूल-

मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।(3)

 

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं

 यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये

यतः प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी।।(4)

"इस संसाररूपी वृक्ष का जैसा स्वरूप वर्णन हुआ है, वैसा इस जगत में उपलब्ध नहीं होता है। इसका आदि, अन्त व आधार भी उपलब्ध नहीं होता। इस सुदृढ मूल वाले संसाररूपी पीपल वृक्ष को दृढ वैराग्य रूपी शस्त्र द्वारा छेदन करने के पश्चात् उन आदि पुरुष के परमपद (परमधाम) का अन्वेषण करना चाहिए, जहाँ से फिर वापस लौटना नहीं पड़ता और उन्हीं आदिपुरुष की शरण ग्रहण करनी चाहिए; जिनसे इस अनादि संसाररूपी वृक्ष का विस्तार हुआ है।"

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा :।

 द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदुःखसंज्ञै-

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।(5)

“सत्कारजन्य गर्व और मोह से रहित, आसक्ति दोष से रहित, आत्मा-परमात्मा के विचार-विमर्श में तत्पर, विषयभोगों की अभिलाषा से रहित, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित अज्ञानमुक्त व्यक्ति उस अविनाशी पद (परमधाम) को प्राप्त करते हैं।”

 

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥(6)

"जो स्थान सूर्य, चन्द्रमा व अग्नि के द्वारा प्रकाशित नहीं होता और जहाँ तक जाकर वापस लौटना नहीं पड़ता; वही मेरा परमधाम है।

 

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥(7)

"संसार में प्रत्येक देह में स्थित जीव मेरा ही सनातन अंश है, जो मन सहित छः इन्द्रियों के माध्यम से प्रकृति के अधीन रहकर कार्य करता है।"

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।(8)

"शरीर का स्वामी जीवात्मा जब एक शरीर को त्यागकर दूसरा शरीर प्राप्त करता है; तब वह मन सहित  छः इन्द्रियों को उसी प्रकार अपने साथ ले जाता है; जिस प्रकार वायु पुष्पादि से सुगन्ध को साथ लेकर जाता है।"

 

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥(9)

"यह जीवात्मा कान, आँख, त्वचा, जिह्वा, नासिका और मन का आश्रय लेकर ही शब्दादि विषयों का सेवन करता है।"

 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥(10)

"अज्ञानीजन देहत्याग के समय अथवा देह में स्थित रहते समय अथवा विषयभोग के समय माया के त्रिगुणों के अधीन इस जीव को नहीं देख पाते हैं, किन्तु ज्ञानरूपी नेत्रों वाले विवेकीजन इसे देख पाते हैं।"

 

 

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥(11)

"भक्ति के लिए यत्नशील योगीजन अपनी देह में स्थित इस जीवात्मा को देख लेते हैं, किन्तु अशुद्धचित्त वाले अज्ञानीजन तो यत्न करके भी इस जीवात्मा को नहीं देख पाते।"

 

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌।

यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌॥(12)

"सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाला सूर्य का तेज और चन्द्रमा व अग्नि का जो तेज है, उसे मेरा ही तेज जानो।"

 

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥(13)

"मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त चराचर  प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही अमृत रसमय चन्द्रमा होकर समस्त वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।"

 

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्‌॥(14)

"मैं प्राणियों की देह में जठराग्नि रूप से विराजित होकर प्राण और अपान वायु के संयोग से चार प्रकार के अन्न (भक्ष्य, भोज्य या पेय, लेह्य व चोष्य) को पचाता हूँ।"

 

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो

वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्‌॥(15)

"मैं समस्त देहधारियों के हृदय में अन्तर्यामी परमात्मा रूप से स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही सब जीवों को अपने आत्मस्वरूप की स्मृति, आत्मज्ञान और जगत की विस्मृति होती है। समस्त वेदों का उद्देश्य मुझे ही जानना है, मैं ही वेदों का संकलनकर्ता और समस्त वेदों का ज्ञाता भी हूँ।"

 

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥(16)

"इस संसार में दो प्रकार के जीव हैं- क्षर और अक्षर। समस्त चराचर प्राणियों के शरीरों में स्थित मायाबद्ध जीव क्षर और मायामुक्त जीव अक्षर कहलाते हैं।

 

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥(17)

"किन्तु इन दोनों से विलक्षण परमात्मा नाम से कथित एक उत्तम पुरुष है, जो अविनाशी ईश्वर है और तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका पालन करता है।"

 

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥(18)

"क्योंकि मैं क्षर से भी परे और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसीलिए मैं आगम शास्त्रों और वेदों (निगम शास्त्रों) में पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ।"

 

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌।

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥(19)

"हे भरतवंशी अर्जुन! जो व्यक्ति संशय रहित होकर मुझे इस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में जान लेता है, वह मुझ सर्वज्ञ की पूर्ण समर्पण के साथ भक्ति करता है।"

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।

एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥(20)

"हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र-तात्पर्य मेरे द्वारा कहा गया है। इसको जानकर मनुष्य बुद्धिमान और कृतार्थ हो जाता है।"

 


🌷 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। 🌷
🌷हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। 🌷


श्रीकृष्ण को जानो।
श्रीकृष्ण को मानो।
श्रीकृष्ण के बन जाओ।

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