श्रीमद्भगवद्गीता में तीन विषयों का प्रतिपादन हुआ है-
संबंध तत्त्व:- संबंध तत्त्व का अर्थ है परमेश्वर। जिन परमेश्वर के साथ प्रत्येक जीव का, भौतिक जगत व बहिरंगा शक्ति का, आध्यात्मिक जगत व अन्तरंगा शक्ति का नित्य एवं अविच्छेद्य संबंध हो उन परमेश्वर को संबंध तत्त्व कहते है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार संबंध तत्व श्रीकृष्ण है। उनके साथ ही प्रत्येक जीव का, भौतिक जगत का एवं आध्यात्मिक जगत का नित्य व अविच्छेद्य संबंध है नित्य का अर्थ है- सदा रहने वाला। अविच्छेद्य का अर्थ है-सदा रहने वाला। अविच्छेद्य का अर्थ है अटूट। प्रत्येक जीव का, जीव के वास स्वरूप भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत का श्रीकृष्ण के साथ नित्य व अटूट संबंध है।
श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान् स्वयं श्रीकृष्ण कहते है-
मत्तः परतरं नान्यत् किंचित अस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।
(गीता 7.7)
हे धनंजय! मुझसे बढ़कर कोई भी नहीं, कुछ भी नहीं। सूत्र में पिरोये गए मोतियों की भांति यह सम्पूर्ण जगत मुझ पर आश्रित है।
श्रीकृष्ण कहते है-हे अर्जुन मुझसे श्रेष्ठ अन्य कोई भी नहीं है अर्थात् मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ। मुझसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं तो जिससे शर्स कोई भी न हो, कुछ भी न हो वही तो परमेश्वर है। यह सम्पूर्ण जगत मारे पर आश्रित है जिस प्रकार मोतियों की माला में सभी मोती धागे पर टिके रहते है उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत भगवान श्रीकृष्ण अथवा उनकी शक्तियों पर आश्रित है।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता अनुसार श्रीकृष्ण परमेश्वर है और सम्पूर्ण जगत के साथ उनका नित्य व अटूट संबंध है।
श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 में भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन:।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
संसार में प्रत्येक देह में स्थित जीव मेरा ही सनातन अंश है, जो मन सहित छ: इन्द्रियों के माध्यम से प्रकृति के अधीन रहकर कार्य करता है।
भौतिक जगत में जितने भी देहधारी प्राणी है वह सब श्रीकृष्ण के सनातन अंश है। अतः सभी जीवों के साथ श्रीकृष्ण का संबंध है और सनातन शब्द के द्वारा नित्य व अविच्छेद्य का बोध हो रहा है
भौतिक जगत की उत्पत्ति माया से होती है। भगवान् श्रीकृष्ण की माया शक्ति दो प्रकार की है-
जीव माया शक्ति का उल्लेख गीता 7.14 में किया गया है-
दैवी हि एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
"मेरी प्रबल त्रिगुणात्मिका दैवी माया से पर होना अत्यंत दुष्कर है किंतु जो मेरी ही शरण ग्रहण करते है, वे इस दुर्लंघ्या माया को सरलता से पार कर लेते है।"
श्रीकृष्ण कहते है कि मेरी माया सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण है। भगवान श्रीकृष्ण की जीव माया इन तीनों गुणों के द्वारा समजत जीवो को अज्ञानता के द्वारा जन्म-मरण के चक्र में बांधकर रखती है।
अतः जीवमाया शक्ति का भगवान् श्रीकृष्ण के साथ संबंध है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
मेरी बहिरंगा प्रकृति या अपरा प्रकृति पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश,मन बुद्धि और आकाश इन आठ भागों में विभाजित है। इन्हीं 8 प्रकार की प्रकृति से सम्पूर्ण भौतिक जगत की उत्पत्ति हुई है। भौतिक जगत की उत्पत्ति हुई है। भौतिक जगत में अनंतकोटि ब्रह्मांड है। प्रत्येक ब्रह्मांड में विभिन्न प्रकार के लोक है तो इन समस्त ब्रह्मांडो की, लोकों की उत्पत्ति इन्हीं आठ तत्वों से होती है। समस्त ब्रह्मांडों के अंदर, लोकों के अंदर समस्त प्रकार के 84 लाख प्रकार के शरीर इन्हीं 8 तत्वों से निर्मित है।
भौतिक जगत का निर्माण करने वाली जो प्रकृति है वह गुणमाया है, उसका संबंध श्रीकृष्ण के साथ है। अतः गुणमाया और जीवमाया दोनों के साथ श्रीकृष्ण का संबंध है।
अव्यक्तोSक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् |
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||
जिस परम गंतव्य को अप्रकट और अविनाशी कहा जाता है और जिसे प्राप्त कर लेने पर वापस लौटना नहीं पड़ता, वही मेरा परमधाम है
इसी प्रकार गीता 15.6 में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।
जहाँ पहुँचने के पश्चात फिर वापस आना नहीं पड़ता वही मेरा परमधाम है। इन दोनों श्लोको में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम धाम का उल्लेख किया है। परमधाम को आध्यात्मिक जगत भी कहते है। अतः आध्यात्मिक जगत के साथ श्रीकृष्ण का संबंध है।
भगवद्गीता 4.6 में श्रीकृष्ण ने आत्ममायया शब्द का प्रयोग किया है। आत्म अर्थात निजी। भगवान श्रीकृष्ण की एक निजी शक्ति है जिसे स्वरूप शक्ति या अन्तरंगा शक्ति कहते है। इस शक्ति का भी श्रीकृष्ण के साथ संबंध सिद्ध होता है।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण ही संबंध तत्त्व हौ जिनते साथ प्रत्येक जीव का, भौतिक जगत का व बहिरंगा शक्ति का, आध्यात्मिक जगत व अन्तरंगा शक्ति का नित्य व अविच्छेद्य संबंध है।
अभिधेय-जिस साधन के द्वारा संबंध तत्त्व की प्राप्ति होती है, उसे अभिधेय तत्त्व कहते हैं । संबंध तत्त्व श्री कृष्ण है तो श्री कृष्ण की प्राप्ति का उपाय या साधन अभिधेय तत्त्व कहलाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य रूप से चार साधनों या उपायों का वर्णन करता है -
कर्म योग , ज्ञान योग , अष्टांग योग या ध्यान योग और भक्ति योग।
लेकिन भगवान का निर्णय है कि चारों में से भक्ति योग सर्वश्रेष्ठ है।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ।। (6.47)
समस्त प्रकार के योगियों में से जो योगी अपने अंतःकरण में मेरा चिंतन करता हुआ , श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है वही मेरे द्वारा सर्वश्रेष्ठ योगी माना जाता है।
भज का अर्थ है - सेवा करना। भक्ति शब्द भज धातु से निर्मित है। भक्ति का अर्थ- भगवान की सेवा करना।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो अपने अंतर मन में मेरा चिंतन करते हुए अंतर मन में मेरा स्मरण करते हुए श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है वह समस्त प्रकार के योगियों में सर्वश्रेष्ठ योगी है अर्थात् गीता के अनुसार श्री कृष्ण की भक्ति ही अभिधेय तत्त्व है ।श्री कृष्ण प्राप्ति का उपाय एकमात्र भक्ति है।
प्रयोजन तत्त्व
जिस उद्देश्य या लक्ष्य को लेकर श्री कृष्ण की भक्ति की जाती है; उस उद्देश्य को प्रयोजन तत्व कहते हैं।
प्रयोजन तत्व का निर्णय करने के हमें नाना प्रकार के उद्देश्यों की व्याख्या करनी होगी अनेक मनुष्य भुक्ति (सुख-सुविधाओं) के लिए, योग सिद्धि के लिए , मुक्ति के लिए भक्ति करते हैं। बहुत कम मनुष्य श्री कृष्ण प्रेम प्राप्ति के लिए भक्ति करते हैं ।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ 10.10 ॥
उन भक्तों को जो मेरे सतत संयोग के इच्छुक हैं , सदा सर्वदा के लिए मेरे संयोग के आकांक्षी हैं, जो प्रतिपल प्रतिक्षण मेरा सान्निध्य चाहते हैं, मुझसे क्षणभर भी दूर नहीं होना चाहते और भजतां प्रीतिपूर्वकम् मेरी प्रीतिपूर्वक प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करते रहते हैं ददामि बुद्धियोगं तं उनको ऐसे प्रेममयी सेवा की दक्षता निपुणता प्रदान करता हूं; जिसके द्वारा वो मुझे प्राप्त कर लेते हैं । श्रीकृष्ण कहते हैं जो मेरे सतत संयोग के आकांक्षी हैं, सदासर्वदा मेरा संयोग सान्निध्य चाहते हैं और साथ में मेरी प्रेममयी सेवा करते हैं। यहां पर प्रीतिपूर्वकं अथार्त जिन्हें कृष्ण प्रेम प्राप्त हो चुका है। जिन्हें कृष्ण प्रेम प्राप्त हो जाता है उनका लक्षण होता है वे श्री कृष्ण की सेवा के बिना, सान्निध्य के बिना एक क्षण भर के लिए भी दूर नहीं रह पाते । इसलिए वे नित्य संयोग चाहते हैं । ऐसे प्रेमी भक्तों को- साध्य भक्ति वालों को मैं बुद्धि योग देता हूं । बुद्धियोग भगवान की विशेष कृपा है, जिस कृपा के फलस्वरुप प्रेमी भक्त भगवान श्री कृष्ण को नित नई-नई सेवाओं के द्वारा वशीभूत कर लेता है । प्रेममयी सेवा में दक्षता प्राप्त कर लेता है ।
अतः कृष्ण प्रेम ही परम प्रयोजन है यही गीता का तीसरा प्रतिपाद्य विषय है।
गीता माहात्मयश्रीकृष्ण को जानो।
श्रीकृष्ण को मानो।
श्रीकृष्ण के बन जाओ।