श्रीमद्भागवत महापुराण की असमोर्ध्व महिमा सभी शास्त्रों में वर्णित है। यहाँ पर कुछ अंश उद्धृत है:-
श्रीपद्मपुराण के अनुसार-
यं वाङ् मयी मूर्ति: प्रत्यक्षा वर्तते हरे:।
सेवनाच्छ्रवणात्पाठाद्दर्शनात्पापनाशिनी।। (प. पु., भा.मा., 3.62)
"इसी कारण से यह श्रीमद्भागवत भगवान् श्रीहरि की प्रत्यक्ष शब्दमयी मूर्ति है। इसकी सेवा, श्रवण, पाठ और दर्शन करने से पाप नाश होता है।"
श्रीमद्भागवत-
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभि: सह ।
कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः।।(श्री भा० 1-3-43)
श्री सूत जी ने श्री शौनकादि मुनियों के प्रति कहा-
"भगवान् श्रीकृष्ण के धर्म, ज्ञानादि सहित अपने परमधाम चले जाने के पश्चात् कलियुग में अज्ञानान्धकार से अंधे लोगों के लिए यह श्रीमद्भागवत पुराण रूपी सूर्य इस समय उदित हुआ है।"
विश्वगुरु श्रीलजीव गोस्वामीपाद जी श्री तत्त्वसन्दर्भ अनुच्छेद चौदह में लिखते है-
"अर्कतारूपकेण तद्विना नान्येषां सम्यग्वस्तु प्रकाशकत्वमिति प्रतिपाद्यते"
अर्थात् श्रीमद्भागवत का सूर्य के साथ रूपक करने से यही प्रतिपादित होता है कि श्रीमद्भागवत के अतिरिक्त अन्यान्य शास्त्रों में परमार्थ तत्त्व वस्तु को सम्यक् रूप से प्रकाशित करने की सामर्थ्य नहीं है। जैसे सूर्य में ही विश्व को प्रकाशित करने की सामर्थ्य है; वैसे एकमात्र श्रीमद्भागवत में ही परमार्थ तत्त्व परमेश्वर को प्रकाशित करने या ज्ञान कराने की सामर्थ्य है।
अतः वर्तमान कलिकाल में जो अज्ञानान्धकार से अंधे बने हुए हैं और परमार्थ तत्त्व परमेश्वर के विषय में दिव्य ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक हैं; उनके लिए श्रीमद्भागवत ही एकमात्र प्रबलतम प्रमाण है। एकमात्र यही सर्वशास्त्रों के मध्य चक्रवर्ती राजा की भांति विराजित है। अन्यान्य समस्त वैदिक शास्त्र भी प्रमाण है, किन्तु श्रीमद्भागवत तो सर्वप्रमाण चक्रवर्ती है।
स्वकीयं यद्भवेत्तेजस्तच्च भागवतेऽदधा
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद्भागवतार्णम्।।
(प०पु०,भा०मा०,3-61)
'तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त शक्तियों को श्रीमद्भागवत में प्रवेश कराया और इस लोक से अंतर्धान होकर भी वे इसी श्रीमद्भागवत समुद्र में प्रवेश कर गए।' अर्थात् अपने मूल दिव्य सच्चिदानंद रूप से दूसरा रूप प्रकट किया और श्रीमद्भागवत समुद्र में प्रवेश कर गए तथा स्वयं मूल रूप को अंतर्धान करके अपने परम धाम चले गये।
श्रीमद्भागवत में श्रीसूत जी के वचन है-
राजन्ते तावदन्यानि पुराणानि सतां गणे।
यावद् भागवतं नैव श्रूयतेऽमृतसागर:।।
(श्री भा० 12-13-14)
'भक्तजनों के मध्य अन्यान्य पुराण तभी तक शोभायमान होते हैं, जब तक भक्ति रस रूपी अमृत के सिंधु श्रीमद्भागवत को सुन नहीं लिया जाता।'
निम्नगानां यथा गङ्गा देवनामच्युतो यथा।
वैष्णवनां यथा शम्भु: पुराणानामिदं तथा।।
(श्री भा० 12-13-16)
'जिस प्रकार नदियों में गङ्गा, देवों में श्रीविष्णु और वैष्णवों में श्रीशिव सर्वश्रेष्ठ है; उसी प्रकार पुराणों में यह श्रीमद्भागवत सर्वश्रेष्ठ है।'
श्रीकृष्ण को जानो।
श्रीकृष्ण को मानो।
श्रीकृष्ण के बन जाओ।